Veer Narayan Singh – वीर नारायण सिंह

Veer Narayan Singh – छत्तीसगढ़ भारत का एक वन सम्पदा से भरपूर राज्य तो है ही, साथ ही यह वीर सपूतों की भूमि भी है। पहले यह मध्य प्रदेश का ही एक भाग था । अंग्रेजी शासन में जब दत्तक पुत्र को अस्वीकार करने का निर्णय हुआ, तो छत्तीसगढ़ भी अंग्रेजों के अधीन आ गया। अंग्रेजों से आजादी दिलाने में हजारों वीरों ने अपने प्राण गवाएं। एक से बढ़कर एक कुर्बानियां दी। अंग्रेजों के खिलाफ सबसे पहले विरोध का बिगुल फूंकने वाले आदिवासी हैं भले ही उन्हें इतिहासकारों ने आजादी के आंदोलन में प्रमुख स्थान नहीं दिया होगा लेकिन आदिवासियों का योगदान व प्रमाण आज भी प्रमाणित रूप से जिंदा है।

छत्तीसगढ़ की राजधानी से लगभग 150 किलोमीटर की दूरी पर ऐतिहासिक ग्राम सोनाखान जिसके नाम से ही स्थान का परिचय हो जाता है। यहाँ की मिट्टी में सोने के कण मिलते थे, इस कारण इसका नाम सोनाखान पड़ा। और इसी स्थान में जन्म हुआ क्रांतिकारी वीर सपूत “वीर नारायण सिंह” का । वीर नारायण सिंह को छत्तीसगढ़ राज्य के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा प्राप्त है। इनके सम्मान में छत्तीसगढ़ सरकार ने क्रिकेट स्टेडियम का नाम शहीद वीर नारायण सिंह अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम रखा है जो नए रायपुर में बना है।

वर्ष 1987 में भारत सरकार ने एक 60 पैसे का डाक टिकट भी निकाला था जिसमें उन्हें तोप के मुंह से बंधा हुआ दिखाया गया है। छत्तीसगढ़ में ऐसे कई महाविद्यालय हैं जो शहीद वीर नारायण सिंह के नाम से हैं। छत्तीसगढ़ शासन द्वारा उनके सम्मान में ‘वीर नारायण सिंह सम्मान’ आदिमजाति कल्याण विभाग द्वारा दिया जाता है जिसकी स्थापना 2001 में की गई। सोनाखान में आज भी वीर नारायण सिंह का नाम गूंजता है। ( Veer Narayan Singh-वीर नारायण सिंह )

वर्तमान में सोनाखान गांव अब जमींदार का महल नहीं है किंतु अवशेष के रुप में खंडहर है। गांव में एक छोटी पहाड़ी है जिसका नाम “पाठ” है, जो एक ऐसा स्थान है जहां साधारण रुप से तो कोई नहीं जा सकता, यहां छोटी सी झील है जहां हमेशा पानी रहता है। कुरु पाठ के उत्तरी छोर में बड़े तालाब हैं “राजा सागर” तथा दक्षिण में तालाब है “मंद सागर” जो वीर नारायण सिंह द्वारा खुदवाये गए थे।

वीर नारायण सिंह का जीवन परिचय

जन्म सन् 1795 सोनाखान, बलौदा बाजार जिला, छत्तीसगढ़
पिता राम राय
माता
जनजातिबिंझवार (आदिवासी समुदाय)
महारत धनुष बाण, मल्ल युद्ध, तलवारबाजी, घुड़सवारी और बंदूक चलाना
मृत्यु10 दिसम्बर 1857 1857 जयस्तंभ चौक, रायपुर

शहीद वीर नारायण सिंह का जन्म स्थान

शहीद वीर नारायण सिंह का जन्म 1795 में सोनाखान में हुआ था। इनके पिता का नाम राम राय था जो कि सोनाखान के जमींदार थे, वे बिंझवार आदिवासी समुदाय के थे । पिता की मृत्यु के बाद सन् 1830 में 35 साल की उम्र में वीर नारायण सिंह ने सोनाखान की कमान संभाली। अपनी रियासत के लोगों के लिए उनका कार्य बहुत ही सराहनीय और अद्भुत रहा जिसके कारण वो सोनाखान रियासत और आसपास के क्षेत्रों में बहुत प्रसिद्ध हो गए थे। उनके दिल में अंग्रेजों के प्रति नफरत पैदा हो गयी थी क्योंकि उन्होंने अपनी आंखों के सामने अपने मजबूर पिता को पराजय स्वीकार करते हुए देखा था। ( Veer Narayan Singh-वीर नारायण सिंह )

वीर नारायण सिंह को वीरता, देशभक्ति और निडरता अपने पिता से विरासत में मिली थी । उनकी प्रारंभिक शिक्षा दीक्षा गोंडी में हुई थी। उन्हें बचपन से ही धनुष बाण, मल्ल युद्ध, तलवारबाजी, घुड़सवारी और बंदूक चलाने में महारत हासिल थी। आसपास के गोंड युवा वीर नारायण से टकराने की हिम्मत नहीं करते थे । स्वभाव से परोपकारी, न्यायप्रिय तथा कर्मठ वीर नारायण जल्द ही लोगों के प्रिय जननायक बन गए। वे अपनी रियासत के हर वर्ग के लोगों के हर सुख-दुख में शामिल होते थे । उनके इस व्यवहार के कारण उनकी रियासत और आसपास के रियासत के लोग अंग्रेजों के खिलाफ खुलकर उनका साथ देने लगे। इससे वीर नारायण सिंह को काफी बल मिला और वे ज्यादा मजबूती से अंग्रेजों का विरोध करने लगे।

शहीद वीर नारायण सिंह कौन थे?

सोनाखान रियासत जो आजकल छत्तीसगढ़ में स्थित है, कभी गोंडवाना के 52 गढ़ों में से एक लाफ़ागढ़ के अंतर्गत आती थी। रतनपुर और सोनाखान कभी मंडला के कोइतूर गोंड राजाओं के महत्वपूर्ण गढ़ थे। सोनाखान का प्राचीन नाम सिंघगढ़ भी था और यह अपनी समृद्धि और वैभव सम्पदा के लिए पूरे मध्य भारत में काफी मशहूर था। महाराजा संग्राम साह के ही संबंधी विरसैया ठाकुर वहां के राजा थे, जो कल्चुरियों को हराकर गोंडवाना की सत्ता स्थापित किए थे। उन्हीं के वंश में फतेह नारायण सिंह नाम के एक महान राजा हुए थे जिनके बेटे का नाम राम राय था जो कोइतूरो के बिंझवार गोंड बिरादरी से थे।

सन् 1818 में जब भोंसले शासकों और ईष्ट इंडिया कंपनी के बीच संधि हुई तो अंग्रेजों ने राम राय से कर वसूलना चाहा जो कि उस रियासत की परंपरा के अनुरूप नहीं था। क्योंकि गोंड राजाओं ने कभी किसी को कर नहीं दिया था चाहे भारत में किसी का भी राज रहा हो। सन् 1819 में सोनाखान के जमींदार राम राय अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्र संग्राम में कूद पड़े और अंग्रेजों के आंख का कांटा बन गए थे। लेकिन वृद्धावस्था और कमजोर सैनिक शक्ति के साथ बहुत दिनों तक अंग्रेजों का विरोध नहीं कर सके और अंग्रेजों से पराजय के बाद बहुत सारी जमीन और संपत्ति खो बैठे।

अंग्रेज कैप्टन मैक्सन से कोइतूर जमींदार राम राय को एक संधि भी करनी पड़ी कि वे और उनके रिश्तेदार कभी भी अंग्रेजों के विरुद्ध कोई भी सैनिक कार्यवाही नहीं करेंगे और न ही अंग्रेजों के काम काज में कोई अड़चन डालेंगे। राम राय की मृत्यु के पश्चात सोनाखान रियासत की जिम्मेदारी बेटे वीर नारायण सिंह बिंझवार गोंड को मिली। ( Veer Narayan Singh-वीर नारायण सिंह )

शहीद वीर नारायण सिंह इतिहास में क्यों प्रसिद्ध है?

कहते हैं कि सोनाखान इलाके में एक नरभक्षी शेर का आतंक फैला था, जो मनुष्यों एवं पालतू जानवरों को मारकर खा जाता था। प्रभावित क्षेत्र की प्रजा जमींदार वीर नारायण सिंह से सुरक्षा की मांग करने लगे। बहादुर युवराज वीर नारायण सिंह प्रजा की सेवा करने के लिए हमेशा तत्पर रहा करते थे, उन्होंने खुंखार शेर को मार डालने की ठान ली और वे हमेशा बंदूक लेकर नरभक्षी शेर को जंगलों की बीहड़ों में खोजते रहते, बहुत दिनों तक शेर का पता नहीं चला।

वह अचानक एक दिन रायपुर के कस्बाई क्षेत्र में उत्पात मचाने लगा। युवराज वीर नारायण सिंह शेर से मुकाबले के लिए निहत्थे खड़े हो गए। शेर ने उन पर आक्रमण कर दिया, तब तलवार निकालकर उन्होंने शेर को मार डाला। इस बहादुरी से प्रभावित होकर ब्रिटिश सरकार ने उन्हें “वीर” की पदवी से सम्मानित किया था। तब से उनके नाम के आगे “वीर” गया। इस घटना के बाद वह “वीर नारायण सिंह” के नाम से जाने जाते हैं। ( Veer Narayan Singh-वीर नारायण सिंह )

आज से लगभग 166 साल पहले सोनाखान रियासत में घोर अकाल और भुखमरी फैल गयी। वहां की प्रजा दाने-दाने को मोहताज हो गई थी। रियासत के लोग वीर नारायण सिंह के पास अपनी फरियाद लेकर गए और अन्न के लिए प्रार्थना करने लगे। शहीद वीर नारायण सिंह के गोदाम में जितना भी अनाज था सारा का सारा जनता में बांट दिया लेकिन वह कुछ दिनों के लिए ही पर्याप्त हो सका। अनाज की कमी से लोग भूख से बेहाल हो गए। अपनी प्रजा को भूखा मरते देख वह परेशान हो गए थे।

उन्होंने जनता की बुरी हालत देखकर वहां के साहूकारों से भी अनाज उधार देने की विनती की और वादा किया कि ब्याज समेत अनाज लौटाया जाएगा, लेकिन साहूकारों ने अनाज देने से मना कर दिया। लेकिन वीर नारायण सिंह जनता के लिए साहसिक निर्णय लिया और अगले ही दिन कसडोल के व्यापारी माखन के गोदाम को जबरदस्ती खोल दिया और जनता को अपनी जरूरत के अनुसार अनाज ले जाने को कहा। महज दो ही दिन में पूरा अन्न का गोदाम खाली हो गया। शहीद वीर नारायण सिंह अंग्रेजों के खिलाफ लगातार छापेमार शैली में स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल फुंकते रहे।

सोनाखान विद्रोह (1857)

01 दिसंबर 1857 को वीर नारायण सिंह गुरिल्ला और छापामार युद्ध का तरीका अपनाकर अंग्रेजों पर धावा बोल दिया था और कई अंग्रेजों को मौत के घाट उतार दिया। अंग्रेजों ने वीर नारायण सिंह को चारो तरफ से घेर लिया और सोनाखान में घुसकर पूरे नगर में आग लगा दी। नारायण सिंह में जब तक शक्ति और सामर्थ्य रही, वे छापामार प्रणाली से अंग्रेजों को परेशान करते रहे। काफी समय तक यह गुरिल्ला युद्ध चलता रहा। लेकिन अंग्रेजों ने उन्हें पकड़ लिया और उन पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया। मुकदमे में उन्हें मृत्युदंड दिया गया।

10 दिसंबर 1857 को ही इस महान गोंडवाना के सपूत को रायपुर के एक चौराहे पर सरेआम तोप से बांधकर उड़ा दिया गया। रायपुर शहर का जय स्तम्भ चौक आज भी शहीद वीर नारायण सिंह बिंझवार गोंड की अमर गाथा बयान कर रहा है। आज भी लाखों लोग प्रेरणा लेते हैं और उनके द्वारा स्थापित कोइतूर संस्कृति, राजनीति, सामाजिक परंपराओं को आगे ले जाने के लिए प्रतिबद्ध है। ऐसे गोंडवाना के बलिदानी, सपूत, शहीद वीर नारायण सिंह को कोटि-कोटि नमन। ( Veer Narayan Singh-वीर नारायण सिंह )

धरना
  • पहली गिरफ्तारी 24 अक्टूबर 1856
  1. के. स्मिथ ने वीरनारायण सिंह को सम्बलपुर से गिरफ्तार किया।
  2. रायपुर जेल में रखा गया।
  3. फरारी अगस्त 1857 को जेल में सुरंग बना कर वीर नारायण भाग निकले।
  • द्वितीय गिरफ्तारी 2 दिसम्बर 1857 (आत्मसमर्पण)
  1. फांसी 10 दिसम्बर 1857 को रायपुर के जयस्तंभ चौक में ।
  2. वीर नारायण सिंह “छ.ग. स्वतंत्रता संग्राम” के प्रथम शहीद कहलाए।
इतिहास
  • सोनाखान महानदी घाटी की प्रमुख जमींदार थी।
  • रतनपुर कल्चुरि बाहरेन्द्रसाथ द्वारा सैन्य सेवा के बदले बिसई ठाकुर बिंझवार को दिया।
  • 1818 में सोनाखान में ब्रिटिश राज स्थापित ।
  • 1819 में रामराय ने विरोध किया।
  • 1830 में श. वीर नारायण (35 वर्ष) सोनाखान के जमींदार बने।

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